Tuesday, June 14, 2016

पं. रामप्रसाद बिस्मिल

आखिर वह सन् 1927 की छह अप्रैल का सूर्य निकला। हम प्रातःकाल ही जल्दी-जल्दी स्नानादि प्रातःकालीन क्रियाओं से निवृत हुए। उस रोज सभी साथियों के चेहरों पर एक अजीब गम्भीरता छाई थी। पं. रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे। वे अपना भोजन अलग बनाया करते थे। उस दिन भी वे अपने पूजा-पाठ हवन आदि से निवृत होकर भोजन करने बैठे ही थे कि पीछे-पीछे मैं पहुँच गया और हाथ जोड़कर डबडबाई हुई आँखों से उनसे प्रार्थना की - "पंडित जी मालूम नहीं आज इस बैरक से जाने के बाद हम लोग दोबारा मिल पाएं - न मिल पाएं... आज मैं अपने हाथ से आपको दो कौर खिलाना चाहता हूँ।" तत्काल अपने भोजन की थाली मेरे सामने करके बोले - "लो भाई, खिलाओ। मैं भी तुम्हें आज अपने हाथ से खिलाऊँगा।"... यह खबर बिजली की भाँति सभी साथियों में फ़ैल गई। सभी साथी दौड़े-दौड़े आए और उन सभी ने पंडित जी को एवं आपस में एक दूसरे को खिलाना शुरू कर दिया। एक प्रकार से एक दूसरे से आखिरी विदाई ली जा रही थी। हम लोगों के हाथ एक दूसरे के मुँह में कौर के साथ जाते थे और उधर आँखों से टप-टप आँसू गिरते जा रहे थे। एक अजीब हृदय विदारक दृश्य था।

जज ने फैसला सुनाना शुरू किया। सबसे पहले अंग्रेज जज ने पं. रामप्रसाद बिस्मिल का नाम पुकारा और उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया। दूसरे नंबर पर उसने श्री राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को भी उतनी ही सजा सुनाई किन्तु जैसे ही तीसरा नाम ठाकुर रोशन सिंह का पुकारा, हम सब आश्चर्यचकित हतप्रभ से हो गए। ठाकुर साहब और फाँसी की सजा! ... सजा सुनते ही ठाकुर साहब का चेहरा खिल उठा, जैसे कि गुलाब का फूल। तुरंत ही पं. रामप्रसाद बिस्मिल की ओर घूम कर बोले - "क्यों पंडित! अकेले जाना चाहते थे!" ठाकुर साहब का व्यवहार देखकर सब दंग रह गए।

सबसे पहले मैंने अपनी जेब से जेल से लाए हुए फूल निकाले और उन्हें पं. रामप्रसाद बिस्मिल, श्री राजेंद्रनाथ लाहिड़ी एवं ठाकुर रोशनसिंह के चरणों में रखकर प्रणाम किया। उन तीनों ने मुझे कसकर गले लगाया। उसके बाद सब साथियों ने मेरे पास से बचे हुए फूल लेकर आपस में बाँट लिए और एक-एक कर सबने बिछड़ने वाले तीनों साथियों को प्रणाम कर उनके चरणों पर फूल चढ़ाए। चिर विदा के इन क्षणों में उम्र और पद वरिष्ठता की सभी दीवारें ढह गईं। श्री सचीन दा, कर दा एवं सुरेश दा सरीखे ज्येष्ठ साथियों ने भी भावविभोर होकर उक्त तीनों महाविभूतियों के चरण छुए थे।

- रामकृष्ण खत्री