Thursday, May 7, 2020

रामायण: क्या सीता परित्याग तर्कसंगत है? | Hinduism: Was Banishment of Sita a Logical Incident?


क्या सीता परित्याग तर्कसंगत है? ऐसा सोचते ही दो बातें पहले ही आ जाती हैं - क्या धर्म के मामले में "तर्क" का प्रयोग व्यावहारिक है? और क्या "रामायण" को सिर्फ धर्म ग्रन्थ मानना चाहिए या फिर एक ऐतिहासिक अनुलेख भी? पहले, धर्म में तर्क पर आते हैं। किसी भी विषय में यदि तर्क का प्रयोग न किया जा सके तो वह विषय क्या एक सिर्फ "अंध विश्वास" में परिवर्तित नहीं हो जाती? 

मैंने स्वामी विवेकानंद आदि को पढ़ा है। इससे मैंने सीखा कि हमारे धर्म में तर्क करना अच्छा माना गया है। शाश्त्रार्थ के ऊपर पंडित लोग तो कई दिनों तक बहस किया करते थे। आदि शंकराचार्य ने भी किया था। यह ज्ञान मार्ग है। सिर्फ "भक्ति मार्ग" में ही "अंध विश्वास" ठीक माना गया है शायद। पर सिर्फ अंध-विश्वास किसी भी धर्म को आगे नहीं ले जा सकता। अंध विश्वास की कमजोरी को क्रिस्चियन मिशनरीजन ने काफी उपयोगी माना है। वे तर्क के आधार पर हमारे भगवानों को गलत साबित करते थे और लोगों को अपने धर्म को खराब समझाकर धर्मान्तरण कराते। अगर हम खुद ही तर्क करके अपने विश्वास को व्यवहारिकता के आधार पर रखकर प्रतिष्ठित रखेंगे तो कोई बाहरी हमें बेवकूफ नहीं बना पायेगा। 

अब सीता के परित्याग और "उत्तर कांड" या "उत्तर रामायण" के ऊपर आते हैं। रामायण में बहुत सी घटनाएँ हैं जो व्यक्तिगत रूप से मुझे पसंद नहीं हो सकती हैं - जैसे राजा होकर भी उन्होंने केवट को गले लगाया, जो भी जैसा भी हो उनके शरण में आया तो उन्होंने अपनाया - ये सब मुझे "अनावश्यक" और "अति भावुकता" लगी। पर उन्होंने किया और मैंने माना - मैंने इन घटनाओं में अच्छे पक्षों को देखा और इनमे अच्छा सन्देश देखा। इससे ये घटनाएँ मुझे श्री राम की महानता के उदाहरण लगे। पर सीता त्याग और उत्तर रामायण में मुझे एक भी अच्छाई नजर नहीं आई। मैंने खोजकर पढ़ा इस बारे में - तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और अन्य विद्वानों का लिखा पढ़ा कि उत्तर रामायण बाद में जोड़ा गया खंड है, वाल्मीकि के मूल रामायण के कई शताब्दिओं बाद उसे वाल्मीकि रामायण से जोड़ दिया गया। तब मुझे बात समझ में आई। मैं ऐसा मानूंगा और इसके कारण हैं: 

श्री राम का जन्म एक "आदर्श राजा" का जीवन दर्शित करने के लिए ही नहीं हुआ था। राजा हरिश्चंद्र "आदर्श राजा" का जीवन सन्देश दे चुके थे। तो फिर रामावतार को किस रूप में समझें? जैसा श्री कृष्ण ने गीता में कहा, जब-जब धरती पर पाप की अधिकता होती है, भगवान पाप का नाश करने हेतु अवतार लेते हैं। यही विष्णु के हर अवतार ने किया, नरसिंघ से लेकर परशुराम अवतार से कृष्ण अवतार तक - बुद्ध ने भी अपने तरीके से पाप का नाश ही किया। 

इसीलिए हमें राम के जीवन को विष्णु के अन्य अवतारों से तुलनात्मक रूप में देखना और समझना चाहिए। शिव जी से तुलना नहीं कर सकते, शिव विनाशक हैं, विष्णु पालनकर्ता - राम के जीवन को किसी और देवता से तुलना न करके, विष्णु के अन्य अवतारों के साथ देखकर ही समझना चाहिए।

तो मेरा समझना है कि राम अवतार धरती से राक्षसों (अधर्म) के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए हुआ था। (हनुमान जी के अवतार का भी कारण यही था - और श्री राम के कार्य में हाथ बँटाना था।) रावण वध से पहले उन्होंने असंख्य राक्षस मारे और रावण वध के साथ राम अवतार का प्रयोजन पूरा हो गया - ऐसा समझा जा सकता है। तो रावण वध के बाद ,अयोध्या लौटकर राजसिंहासन पर बैठकर राम अवतार ख़त्म हो जाना चाहिए था। विष्णु के अन्य अवतारों को देखकर सोचिये - उनका "प्रयोजन" पूरा होने पर सब चले गए थे। अवतार एक खास प्रयोजन के लिए ही होता है और उसके बाद उसकी जरुरत नहीं रहती। जैसा परशुराम ने भी कहा कि राम के आने पर मेरा प्रयोजन नहीं बचा अब। जैसे राम के आने पर परशुराम अवतार का प्रयोजन समाप्त हो गया, वैसे ही रावण वध और सीता को वापस लाने के बाद राम के अवतार का प्रयोजन समाप्त हो जाना चाहिए था।

"सीता त्याग" से राम के अवतार का कोई प्रयोजन पूरा होता नहीं दीखता। मुझे इसमें सिर्फ एक सन्देश समझ में आता है और वो है कि "अगर प्रजा गलत सोचे तो राजा को प्रजा की गलत धारणा को सुधारने के बदले प्रजा को सही साबित करने के लिए खुद के धर्म का त्याग कर देना चाहिए"। इसे निम्नांकित बातों से समझें: 

१. राम का धर्म था सीता की रक्षा करना 
२. राम ने शादी के समय सीता की रक्षा का वचन दिया था और अग्नि के समक्ष प्रतिज्ञा ली थी 
३. सीता निर्दोष थीं और निर्दोष को सजा देना अधर्म है 
४. प्रजा की धारणा गलत थी और अगर राम सीता का त्याग कर देते तो प्रजा की गलत धारणा सही हो जाती - "देखो सीता ने कुछ गलत किया था, तभी तो राम ने उनका त्याग किया?", लोग ऐसा सोचते 
५. सीता की अग्नि परीक्षा हो चुकी थी और इस कारण फिर से परित्याग की घटना अतार्किक लगती है 

इन कारणों से मुझे सीता परित्याग की घटना तर्कसंगत नहीं लगती। श्री राम के धर्मपरायण जीवन से यह घटना और ऐसे व्यवहार की कल्पना तर्क संगत नहीं लगती। यही लगता है कि यह कहानी बाद में जोड़ी गई है, जैसा सी. राजगोपालाचारी जी ने भी लिखा है। क्या ऐसा "बाद में जोड़ना" संभव था? हिन्दू सनातन धर्म के सारे ग्रन्थ पहले "मौखिक" रूप में ही थे, लिखा उन्हें बहुत बाद में गया। पुस्तक रूप हमारे ग्रन्थ में तो हाल में प्रिंटिंग के अविष्कार के बाद आये। मौखिक से लिखित रूप में भी लेखन एक बार में नहीं हुआ, और इसी दौरान त्रुटियों या जोड़-तोड़ की पूरी सम्भावना रही होगी। 

कुछ लोगों के ख्याल से सीता त्याग प्रभु राम की ही एक "लीला" थी और इससे श्री राम की कोई शिकायत नहीं होती। ऐसा भी माना जा सकता है। 

खैर, मैंने जो पढ़ा और अपने विचार से सोचा, उसे तर्क के आधार पर तौल कर अपनी धारणा बनाई है कि सीता परित्याग की घटना तार्किक नहीं लगती। 

- राहुल तिवारी 

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