रेल यात्रा के दौरान सहयात्रियों में एक छोटे भाई-बहन भी थे। "पायल" नाम की बहन करीब ६ साल की थी और भाई १० का, जिसे वो बस "भाई" कह कर पुकारती। भाइयों के लिए सामान्यतः "भइया" शब्द ज्यादा प्रचलन में है, और "भाई" आजकल कहीं और की तुलना में बॉलीवुड के 'अंडर-वर्ल्ड' और सलमान खान की ज्यादा याद दिलाते हैं। तो भाई-बहन पूरी यात्रा में स्टोन-पेपर-सीज़र, और कौन ज्यादा देर तक साँस रोकता है - ऐसे बचपने के खेल खेलते रहे। पर इससे पहले कि मैं सोचता कि ये बच्चे "स्मार्टफोन" नामक बीमारी से अछूते हैं - वो अपनी माँ के स्मार्टफोन पर ऑडियो सॉंग्स सुनने लगे। और वो भी कैसे? ईयर-फोन के दोनों बड्स को अपने एक-एक कान में डाले और अपनी पतली-पतली आवाजों में गाते रहते। डब्बे में मौजूद बाकी यात्री उनके प्यार भरे बचपन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए। पर तब एक मजेदार बात हुई।
ट्रेन एक ऐसे जगह से गुजर रही थी जहाँ खाली जमीन पर चारदीवारियां खिंची हुई थीं। भाई ने बहन से कहा "देखो" तो बहन ने देखा और बोल उठी - "उसे घेरा गया है ताकि बॉल उसके उधर न जा सके"। छह साल की पायल के लिए एक चारदीवारी का वही काम था - खेलते समय गेंद को उसके पार जाने से रोकना! कितना नादान पर अद्भुत वाक्य था वो!
क्या हम सब उस बच्ची की तरह ही नादान नहीं हैं? चाहे जितना जान लो, जितना देख समझ लो - ज्ञान तो अनंत है। हमेशा काफी कुछ देखने, जानने और समझने के लिए शेष रहेगा ही! तो किसी भी चीज पर हमारी कोई भी समझदारी भरी बात "ताकि बॉल उसके उधर न जा सके" जैसी ही साबित हो सकती है!
काश हमें हमेशा याद रहे कि हम कितना कम जानते हैं और कितने नादान हैं। मेरी रेल यात्रा के नन्हे सहयात्री मुझे यह सिखला गए।
- राहुल तिवारी
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