Saturday, October 18, 2014

विभिन्न रूपों में श्रीमाँ

कालीघाट में भद्रकाली का दर्शन करने के बाद माँ पैदल नकुलेश्वर की ओर जा रही थीं। मार्ग में गेरुआ-धारिणी, त्रिशूल-हस्ता भैरवी उनका रास्ता रोककर खड़ी हो गयीं। कुछ देर माँ के मुँह की ओर निहारने के बाद भैरवी गाने लगी। माँ चित्रलेखा-सी खड़ी रहीं। भैरवी का भजन सुनने के लिए रास्ते में भिखारियों और यात्रियों आदि की भीड़ लग गयी। वे गा रही थीं- 

ओ पार्वती, बता, तू पराये घर में किस प्रकार रही 
कितने लोग कितना कुछ कहते हैं,
सुन-सुनकर मेरे प्राण निकलने लगते हैं॥ 
माँ के प्राणों को भला धैर्य कैसे मिले,
क्योंकि सुना है कि जमाई भिक्षा किया करता है! 
इस बार जब शिव तुझे लेने आयेंगे,
तो कह दूंगी कि पार्वती घर में नहीं है॥ 

भजन समाप्त होने पर माँ के संकेत पर भैरवी को पैसे देने को तैयार होने पर उसने मना करते हुए कहा, "जिससे जो प्राप्य हो, उससे वही लेना चाहिए, माँ। तुमसे जो लेना है, वह मैं स्वयं ही ले लूंगी। तू जहाँ जा रही है, जा।" माँ आगे बढ़ीं। मैंने देखा कि रास्ते में जहाँ माँ के चरणों की धूलि पड़ी थी, भैरवी ने उसे उठाकर अपने सिर पर धारण किया और चली गयी।

नकुलेश्वर पहुँचकर माँ दर्शन करने नहीं गयीं। नलिनी, राधू, छोटी मामी और गोलाप-माँ को दर्शनार्थ जाने को कहकर वे स्वयं एक चबूतरे पर बैठी रहीं। अपने आप में डूबी बैठी रहीं। गोलाप-माँ आदि ने लौटकर जब उन्हें कई बार पुकारा, तब वे उठीं और अनमने भाव में गाड़ी में बैठ गयीं। सारे रास्ते वे कुछ नहीं बोलीं। घर लौटकर उन्होंने पूछा, "वह भैरवी कौन थी?" मैं बोला, "लगता है गिरीशबाबू के थिएटर की कोई रही होगी, इस समय ऐसी हो गयी है।" माँ  विशेष कुछ नहीं बोलीं, 'ओह!' मात्र कहकर चुप हो गयीं। 

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साभार: "विभिन्न रूपों में श्रीमाँ", विवेक ज्योति (पत्रिका), अक्तूबर अंक, पृष्ठ ४६५
मूल: बँगला ग्रन्थ 'श्रीश्री मायेर पदप्रान्ते', खंड २ से, अनुवादक श्रीमती मधूलिका श्रीवास्तव।

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